Saturday, January 15, 2011

या उसको गुनह-गार लिखूं..

प्यार लिखूं, श्रृंगार लिखूं, या बहते अश्रुधार लिखूं, रोते-रोते जीत लिखूं या हँसते-हँसते हार लिखूं. ये कह दूं कि उसने मुझसे वादे करके तोड़ दिए या फिर मैं ही उसके दिल पर अपना हर इक वार लिखूं.. जाने मैंने मारा उसको या फिर खुद ही क़त्ल हुआ.. उसको अपना कातिल लिखूं या खुद को गद्दार लिखूं सपनो का वो शीशमहल, मैंने ही रचा और आग भी दी. अब जलते उसके सपने लिखूं या वो आँखें लाचार लिखूं.. खुद ही हर अपराध किया, और खुद ही न्यायाधीश बना.. न्याय-धर्म निभाऊं अब मैं, या उसको गुनह-गार लिखूं.. -

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